ईश्वर की मनुष्य के लिए बहुमूल्य देन बुद्धि है। मनुष्य और पशुओं में बस एक बुद्धि का ही अंतर है। ये बुद्धि है, जो हमें पशुओं से अलग करती है जो मनुष्य बुद्धि को धारण करता हुआ भी साहित्य संगीत और अनेक तरह की कलाओं का ज्ञान प्राप्त नहीं करता वह वास्तव में मनुष्य कहलाने के लायक ही नहीं है। खाना, बैठना, चलना, सोना,अनुभव करना, मनोरंजन करना है यह सब काम में मनुष्य पशु के समान करता ही है। केवल बुद्धि है जो उन्हें पशुओं से अलग करती है
बुद्धि होते हुए भी वह अनेक तरह की कलाओं में भाग नहीं लेता, उनका ज्ञान प्राप्त नहीं करता है तो उसमें और पशुओ में कोई अंतर नहीं रह जाता फिर तो मनुष्य भी बिना सींग और पूछ वाला पशु ही है। पशु घास खाता है, मनुष्य घास नहीं खाता अन्न खाता है
मनुष्य को चाहिए कि वे अपने बुद्धि का सदुपयोग करें अपनी बुद्धि को अच्छे कामों में लगाए, समाज को जागरूक करें और उनके हित के लिए कार्य करें। अभी उनका जन्म सार्थक हो सकता है।
यदि मानव शरीर को धारण करके भी ईश्वर का ध्यान नहीं करता, दान नहीं देता, ज्ञान प्राप्त नहीं करता, दूसरों की मदद नहीं करता, जीवन में सदाचार का पालन नहीं करता, माता-पिता का ख्याल नहीं रखता, दान दया गुणों से रहित है धर्म का आचरण भी नहीं करता ऐसे मनुष्य वास्तव में मनुष्य कहलाने के अधिकारी है ही नहीं। वे मनुष्य के रूप में पशु ही हैं।
बुद्धि होते हुए भी वह अनेक तरह की कलाओं में भाग नहीं लेता, उनका ज्ञान प्राप्त नहीं करता है तो उसमें और पशुओ में कोई अंतर नहीं रह जाता फिर तो मनुष्य भी बिना सींग और पूछ वाला पशु ही है। पशु घास खाता है, मनुष्य घास नहीं खाता अन्न खाता है
मनुष्य को चाहिए कि वे अपने बुद्धि का सदुपयोग करें अपनी बुद्धि को अच्छे कामों में लगाए, समाज को जागरूक करें और उनके हित के लिए कार्य करें। अभी उनका जन्म सार्थक हो सकता है।
यदि मानव शरीर को धारण करके भी ईश्वर का ध्यान नहीं करता, दान नहीं देता, ज्ञान प्राप्त नहीं करता, दूसरों की मदद नहीं करता, जीवन में सदाचार का पालन नहीं करता, माता-पिता का ख्याल नहीं रखता, दान दया गुणों से रहित है धर्म का आचरण भी नहीं करता ऐसे मनुष्य वास्तव में मनुष्य कहलाने के अधिकारी है ही नहीं। वे मनुष्य के रूप में पशु ही हैं।
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